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Saturday, December 10, 2011

जीवन से कैसे जुड़ा शास्त्रीय संगीत ...!!

शास्त्र में उस स्वर सन्दर्भ को राग का नाम दिया गया है जो मधुर स्वर और वर्ण से विभूषित होकर ह्रदय का रंजन करे| किसी एक स्वर से मन रंजित  नहीं होता |जब तक अन्य स्वरों का सहयोग न हो ..तब तक उसमे भाव या ..रस की उत्पत्ति नहीं होती |जब अनेक सुर मिलकर किसी धुन में बंध जाते हैं ,या किसी एक राह पर चलते हैं ...तो वह धुन राग का संचार करने में समर्थ होती है |उसी धुन को राग कहते है |अब हम राग को ''चुने हुए सुरों की रंगोली बनाते हुए किसी राह पर चलना ''...इस तरह की कल्पना भी दे सकते हैं|

राग में निम्नलिखित बातों का होना ज़रूरी है ...
१-राग किसी ठाट से उत्पन्न होनी चाहिए |
२-ध्वनी  की एक विशेष रचना हो |
३-उसमे स्वर तथा वर्ण हों
४-रंजकता यानि सुन्दरता हो |
५-राग में कम से कम पञ्च स्वर आवश्य होने चाहिए |
६- राग में एक ही स्वर के पास-पास उपयोग को शास्त्रकारों ने विरोध किया है |जैसे  ग और ग ,
७- राग में आरोह-अवरोह होना आवश्यक है |क्योंकि उसके बिना राग को पहचाना नहीं जा सकता |
८-किसी भी राग से षडज स्वर वर्जित नहीं होता |
९-मध्यम और पंचम दोनों एक साथ कभी वर्जित नहीं होते |एक न एक स्वर राग में होगा ही |
१०-राग में वादी-संवादी स्वर ज़रूर होना चाहिए |

अब साधारण भाषा में ये कहा जा सकता है कि बहुत सरे नियम को मानते हुए जब हम स्वरों का प्रयोग करते हैं ,तो राग कि उत्पत्ति होती है | तब ही बनती है ऐसी रचना जो मन रंजित करे |बिना कुछ नियम निभाए ,या बिना कुछ बंधन में बंधे ........बिना अथक प्रयास के ....राग की संरचना  नहीं होती ...!!


इसलिए कहते हैं  जीवन से जुड़ी बहुत सारी बातें शास्त्रीय संगीत बताता है ..!और  हमें  अपनी  सभ्यता  और  संस्कृति  से  जोड़े  रखता  है  ...!


*षडज-सा  स्वर को संगीत की भाषा में षडज कहते हैं .
रिशब- रे
गंधार -ग
मध्यम -म
पंचम -प
धैवत -ध
निषाद -नि 

Saturday, December 3, 2011

अलंकार ...

प्राचीन ग्रंथकार 'अलंकार 'की परिभाषा इस प्रकार कहते हैं :

  
 विशिष्ट वर्ण सन्दर्भमलंकर प्रचक्षते


अर्थात-कुछ नियमित वर्ण समुदाओं को अलंकार कहते हैं |
अलंकार का शाब्दिक अर्थ हुआ  सजाना या शोभा बढ़ाना |तो अलंकार हुआ आभूषण या गहना |जिस प्रकार आभूषण से शरीर की शोभा बढ़ती है ...उसी प्रकार अलंकार से गायन  की शोभा बढ़ती है |


जैसे चन्द्रमा के बिना रात्री ,जल के बिना नदी,फूल के बिना लता तथा आभूषण के बिना स्त्री शोभा नहीं पाती ,उसी प्रकार अलंकार बिना गीत भी शोभा को प्राप्त नहीं होते  |
                    अलंकार को पलटा भी कहते हैं |गायन सीखने से पहले विद्यार्थियों को विभिन्न अलंकार सिखाये जाते है |इससे स्वर ज्ञान अच्छा होता है |राग-विस्तार में सहायता मिलती  है |इनकी सहायता से अपनी कल्पनाशक्ति से आप राग जैसा चाहें सजा सकते हैं |ताने भी अलंकारों के आधार पर ही बनती हैं|

स्वर स्थान समझने के लिए ..या यूँ कहूं की ये जानने के लिए की सा से रे ,रे से ग ,ग से म क्रमशः स्वरों की दूरी परस्पर कितनी है हमें अलंकारों का अभ्यास करना पड़ता है |जैसे :
आरोह :सारेग ,रेगम ,गमप,मपध ,पधनी ,धनिसां ||
अवरोह :सांनिध ,निधप,धपम ,पमग ,मगरे ,गरेसा ||
स्वरों से समूह को ले कर आरोह और अवरोह करते हैं विभिन्न अलंकार |
ये कई प्रकार से किये जा सकते हैं |



                                          अलंकार वर्ण समुदायों में ही होते हैं|उदाहरण के लिए वर्ण समुदाय को लीजिये ...सा रे  ग  सा |इसमें आरोही-अवरोही दोनों वर्ग आ गए हैं|यह एक सीढ़ी मान लीजिये|अब इसी आधार पर आगे बढिए ...और पिछला स्वर छोड़कर आगे का स्वर बढ़ाते जाइए |रे  ग  म  रे ..ये दूसरी सीढ़ी हुई ...


सा   रे   ग   सा ,
      रे   ग  म   रे ,
         ग  म  प  ग  ,
            म   प  ध   म  ,
              प   ध नि  प,
                ध  नि  सा ध
                   नि  सां   रें  नि ,
                     सां   रें  गं सां


अवरोह ...में वापस आना है |
                                                     सां   रें  गं सां
                                                नि  सां   रें  नि ,  
                                            ध  नि  सा ध .....


इस प्रकार ...!


इसी प्रकार बहुत से अलंकार तैयार किये जा सकते है |राग में लगने वाले स्वरों के आधार पर |अलंकार क्या है ये समझाने कीमैंने  पूरी कोशिश की है ...पता नहीं किस हद तक समझा पाई हूँ क्योंकि ये क्रियात्मक शास्त्र है |पहले हम खूब गा कर मन में स्वरों को  बिठाते हैं ...रट-रट कर ...बाद में शास्त्र कुछ समझ में आता है |
                                               अगर कुछ प्रश्न हो ज़रूर पूछ लीजिये ...मेरा सौभाग्य होगा अगर मैं कुछ बता पाऊं ...!