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Friday, March 9, 2012

भारतीय संगीत की उत्पत्ति ....!!


''संगीत- दर्पण'' के लेखक दामोदर पंडित (सन १६२५ ई .)के मतानुसार ,संगीत की उत्पत्ति वेदों के निर्माता ,ब्रह्मा  द्वारा  ही हुई ।ब्रह्मा ने जिस संगीत को शोधकर निकाला  ,भारत मुनि ने महादेव के सामने जिसका प्रयोग किया ,तथा जो मुक्तिदायक है वो मार्गी संगीत कहलाता है|
इसका प्रयोग ब्रह्मा के बाद भारत ने किया ।वह अत्यंत प्राचीन तथा कठोर सांस्कृतिक व धार्मिक नियमों से जकड़ा हुआ था ,अतः आगे इसका प्रचार ही समाप्त हो गया ।
एक विवेचन में सात  स्वरों की उत्पत्ति पशु-पक्षियों  द्वारा इस प्रकार बताई गयी है :

मोर से षडज (सा)
चातक से रिशब (रे)
बकरे से गंधार  (ग )
कौआ से मध्यम  (म)
कोयल से पंचम  (प)
मेंडक से धैवत  (ध)
हाथी से निषाद  (नि)
स्वर की उत्पत्ति हुई ।

एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो सातों स्वरों की नाद निकाल सकता है ...!



Sunday, March 4, 2012

हार्मनी ....और....मेलोडी

हार्मनी :  दो या दो से अधिक स्वरों को एक साथ बजने से उत्पन्न मधुर भाव को हार्मनी या स्वर संवाद कहते हैं ।उदाहरण के लिए सा,ग,प या ... सां स्वरों को एक साथ बजने से हार्मनी की रचना होगी।पाश्चात्य संगीत हार्मनी पर ही आधारित है ।


मेलोडी :  स्वरों के क्रमिक उच्चारण या वादन को मेलोडी कहा गया है ।जैसे सा,ग,प आदि एक दुसरे के बाद गाये  बजाये जाएँ तो मेलोडी किन्तु यदि इन्हें एक साथ बजाय जाये तो सम्मिलित स्वर हार्मनी कहलायेंगे ।हमारी हिन्दुस्तानी संगीत मेलोडी प्रधान है क्योंकि क्रमिक स्वर उच्चारण इसकी विशेषता है ।
  • मेलोडी व्यक्ति की आतंरिक भावनाओं को और हार्मनी बाह्य वातावरण को व्यक्त करने में सफल होती है । 
  • व्यक्तिगत भावों के लिए मेलोडी और सामूहिक भाव प्रदर्शन के लिए हार्मनी उपयुक्त है ।जैसे -एक व्यक्ति जब अपनी माँ से विदा मांग रहा है तो उसके मनोभावों को व्यक्त करने के लिए मेलोडी उपयुक्त होगी ।किन्तु एक सुंदर दृश्य जैसे -नदी का किनारा ,पक्षियों का कलरव ,डूबता सूर्य,दूर से आती हुई संगीत-ध्वनी आदि को व्यक्त करने में हार्मनी उपयुक्त होगी ।

Tuesday, January 31, 2012

दमादम मस्त कलंदर .....

मैं सोचती हूँ ...शास्त्रीय संगीत मेरी आत्मा है ...!लेकिन मुझ जैसे और भी लोग हैं जिनकी आत्मा है शास्त्रीय संगीत ...!!शायद मुझसे भी ज्यादा लगाव है संगीत से उनका ...!!
गाना बजाना और सुनना ...
किन्तु  न गायक न वादक न श्रोता ...यहाँ सिर्फ संगीत है .....एक रूप ...उसी में सब समां जाना चाहते हैं ...संगीत सब को एक लहर में बहा ले जाता है ....इस अनुभूति के लिए .. ...इस शाम के लिए मैं अपने आप को धन्य मानती हूँ .....




सिंथ  पर  हैं  मुकेश कानन जी 
तबले पर हैं हमित वालिया जी . 

दमादम मस्त कलंदर .....सुनिए ....

Monday, January 23, 2012

सहृदय स्वरोज सुर मंदिर पर ...

सहृदय स्वरोज  सुर मंदिर पर ...

ख़ामोशी की आवाज़....
अँधेरे में उठाते रोशन लफ्ज़ ...



Monday, January 16, 2012

ताल और रस ....!!

किसी भी कला के लिए ये ज़रूरी है कि उससे मानव ह्रदय में स्थित स्थायी भाव जागें और उन भावों से तत्सम्बन्धी रस की  उत्पत्ति होती हो ;तभी मनुष्य आनंद की  अनुभूति कर सकता है |इसी को सौंदर्य बोध कहते हैं |
साहित्य में नौ रसों का उल्लेख किया गया है :
१-श्रृंगार  रस
२- करुण रस
३-वीर रस
४-भयानक रस
५-हास्य रस
६-रौद्र  रस
७-वीभत्स रस
८-अद्भुत रस
९-शांत रस


संगीत में श्रृंगार,वीर,करुण और शांत इन चारों रसों में अन्य सभी रसों का समावेश मानते हुए ताल और लय को भी रसों में सम्बंधित माना  गया है |
शब्द,स्वर,लय  और ताल मिल कर संगीत में रस की  उत्पत्ति करते हैं |साहित्य में छंद की  विविधता और संगीत में ताल एवं लय के सामंजस्य द्वारा विभिन्न रसों की सृष्टि की  जाती है |
   ताल विहीन संगीत नासिका विहीन मुख की  भांति बताया गया है |ताल से अनुशासित होकर ही संगीत विभिन्न भावों और रसों को उत्पन्न कर पता है |ताल की गतियाँ स्वरों की सहायता के बिना भी रस -निष्पत्ति में सक्षम होती हैं |


मध्य लय -हास्य एवं श्रृंगार रसों की पोषक है |
विलम्बित लय -वीभत्स और भयानक रसों की पोषक है |
द्रुतलय -वीर,रौद्र एवं  अद्भुत रसों की पोषक है |

Saturday, December 10, 2011

जीवन से कैसे जुड़ा शास्त्रीय संगीत ...!!

शास्त्र में उस स्वर सन्दर्भ को राग का नाम दिया गया है जो मधुर स्वर और वर्ण से विभूषित होकर ह्रदय का रंजन करे| किसी एक स्वर से मन रंजित  नहीं होता |जब तक अन्य स्वरों का सहयोग न हो ..तब तक उसमे भाव या ..रस की उत्पत्ति नहीं होती |जब अनेक सुर मिलकर किसी धुन में बंध जाते हैं ,या किसी एक राह पर चलते हैं ...तो वह धुन राग का संचार करने में समर्थ होती है |उसी धुन को राग कहते है |अब हम राग को ''चुने हुए सुरों की रंगोली बनाते हुए किसी राह पर चलना ''...इस तरह की कल्पना भी दे सकते हैं|

राग में निम्नलिखित बातों का होना ज़रूरी है ...
१-राग किसी ठाट से उत्पन्न होनी चाहिए |
२-ध्वनी  की एक विशेष रचना हो |
३-उसमे स्वर तथा वर्ण हों
४-रंजकता यानि सुन्दरता हो |
५-राग में कम से कम पञ्च स्वर आवश्य होने चाहिए |
६- राग में एक ही स्वर के पास-पास उपयोग को शास्त्रकारों ने विरोध किया है |जैसे  ग और ग ,
७- राग में आरोह-अवरोह होना आवश्यक है |क्योंकि उसके बिना राग को पहचाना नहीं जा सकता |
८-किसी भी राग से षडज स्वर वर्जित नहीं होता |
९-मध्यम और पंचम दोनों एक साथ कभी वर्जित नहीं होते |एक न एक स्वर राग में होगा ही |
१०-राग में वादी-संवादी स्वर ज़रूर होना चाहिए |

अब साधारण भाषा में ये कहा जा सकता है कि बहुत सरे नियम को मानते हुए जब हम स्वरों का प्रयोग करते हैं ,तो राग कि उत्पत्ति होती है | तब ही बनती है ऐसी रचना जो मन रंजित करे |बिना कुछ नियम निभाए ,या बिना कुछ बंधन में बंधे ........बिना अथक प्रयास के ....राग की संरचना  नहीं होती ...!!


इसलिए कहते हैं  जीवन से जुड़ी बहुत सारी बातें शास्त्रीय संगीत बताता है ..!और  हमें  अपनी  सभ्यता  और  संस्कृति  से  जोड़े  रखता  है  ...!


*षडज-सा  स्वर को संगीत की भाषा में षडज कहते हैं .
रिशब- रे
गंधार -ग
मध्यम -म
पंचम -प
धैवत -ध
निषाद -नि 

Saturday, December 3, 2011

अलंकार ...

प्राचीन ग्रंथकार 'अलंकार 'की परिभाषा इस प्रकार कहते हैं :

  
 विशिष्ट वर्ण सन्दर्भमलंकर प्रचक्षते


अर्थात-कुछ नियमित वर्ण समुदाओं को अलंकार कहते हैं |
अलंकार का शाब्दिक अर्थ हुआ  सजाना या शोभा बढ़ाना |तो अलंकार हुआ आभूषण या गहना |जिस प्रकार आभूषण से शरीर की शोभा बढ़ती है ...उसी प्रकार अलंकार से गायन  की शोभा बढ़ती है |


जैसे चन्द्रमा के बिना रात्री ,जल के बिना नदी,फूल के बिना लता तथा आभूषण के बिना स्त्री शोभा नहीं पाती ,उसी प्रकार अलंकार बिना गीत भी शोभा को प्राप्त नहीं होते  |
                    अलंकार को पलटा भी कहते हैं |गायन सीखने से पहले विद्यार्थियों को विभिन्न अलंकार सिखाये जाते है |इससे स्वर ज्ञान अच्छा होता है |राग-विस्तार में सहायता मिलती  है |इनकी सहायता से अपनी कल्पनाशक्ति से आप राग जैसा चाहें सजा सकते हैं |ताने भी अलंकारों के आधार पर ही बनती हैं|

स्वर स्थान समझने के लिए ..या यूँ कहूं की ये जानने के लिए की सा से रे ,रे से ग ,ग से म क्रमशः स्वरों की दूरी परस्पर कितनी है हमें अलंकारों का अभ्यास करना पड़ता है |जैसे :
आरोह :सारेग ,रेगम ,गमप,मपध ,पधनी ,धनिसां ||
अवरोह :सांनिध ,निधप,धपम ,पमग ,मगरे ,गरेसा ||
स्वरों से समूह को ले कर आरोह और अवरोह करते हैं विभिन्न अलंकार |
ये कई प्रकार से किये जा सकते हैं |



                                          अलंकार वर्ण समुदायों में ही होते हैं|उदाहरण के लिए वर्ण समुदाय को लीजिये ...सा रे  ग  सा |इसमें आरोही-अवरोही दोनों वर्ग आ गए हैं|यह एक सीढ़ी मान लीजिये|अब इसी आधार पर आगे बढिए ...और पिछला स्वर छोड़कर आगे का स्वर बढ़ाते जाइए |रे  ग  म  रे ..ये दूसरी सीढ़ी हुई ...


सा   रे   ग   सा ,
      रे   ग  म   रे ,
         ग  म  प  ग  ,
            म   प  ध   म  ,
              प   ध नि  प,
                ध  नि  सा ध
                   नि  सां   रें  नि ,
                     सां   रें  गं सां


अवरोह ...में वापस आना है |
                                                     सां   रें  गं सां
                                                नि  सां   रें  नि ,  
                                            ध  नि  सा ध .....


इस प्रकार ...!


इसी प्रकार बहुत से अलंकार तैयार किये जा सकते है |राग में लगने वाले स्वरों के आधार पर |अलंकार क्या है ये समझाने कीमैंने  पूरी कोशिश की है ...पता नहीं किस हद तक समझा पाई हूँ क्योंकि ये क्रियात्मक शास्त्र है |पहले हम खूब गा कर मन में स्वरों को  बिठाते हैं ...रट-रट कर ...बाद में शास्त्र कुछ समझ में आता है |
                                               अगर कुछ प्रश्न हो ज़रूर पूछ लीजिये ...मेरा सौभाग्य होगा अगर मैं कुछ बता पाऊं ...!