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Tuesday, March 27, 2012

वाद्यों के प्रकार ...!!




भारतीय वाद्यों को चार श्रेणियों में बांटा गया है :

१-तत वाद्य 
२-सुषिर वाद्य 
३-अवनद्य वाद्य 
४-घन वाद्य 

तत या तंतु वाद्य :इस श्रेणी में वाद्यों में तारों द्वारा स्वरों की उत्पत्ति होती है ।इनके भी दो प्रकार हैं :
  • तत वाद्य 
  • वितत वाद्य 
तत वाद्य :इसमें तार के वे साज़ आते हैं ,जिन्हें मिजराब या अन्य किसी वास्तु की टंकोर देकर बजाते हैं ।जैसे वीणा,सितार ,सरोद,तानपुरा,इकतारा आदि।
वितत वाद्य :इसमें गज की सहायता से बजने वाले वाद्य आते हैं ।जैसे इसराज,सारंगी,वायलिन इत्यादि।

सुषिर वाद्य :इसमें फूंक या हवा से बजने वाले वाद्य आते हैं।जैसे बांसुरी,हारमोनियम ,क्लारिनेट ,शहनाई,बीन,शंख इत्यादि।

अवनद्य वाद्य :इसमें चमड़े से मढ़े हुए ताल वाद्य आते हैं ।जैसे -मृदंग,तबला,ढोलक,खंजरी,नागदा,डमरू आदि ।

घन वाद्य :जब वाद्यों में चोट या अघात करने से ध्वनि उत्पन्न होती है ,उसे घन वाद्य कहते हैं ।जैसे जल तरंग,मंजीरा ,झांझ इत्यादि।

Thursday, March 22, 2012

पुरी में आनंद भयो .

साधना जी कहरवा भजनी ठेका पर ये भजन प्रस्तुत है ...!!
शुभ समय भी है ....कल से नवरात्र प्रारंभ है ...नव संवत्सर आप सभी को मंगलमय हो ....!!

घर आ गए लक्ष्मण राम
पुरी में आनंद भयो .

सुरा गऊअन के गुबर मंगाए ,
डिगधर अंगन लिपाये ,
गज मुतियन के चौक पुराए
कंचन कलश लिसाए
पुरी में आनंद भयो ....

मात कौशल्या पूछन  लागीं
कहो बन की कछु बात
कितने दिन में रावन मारे
दियो विभीषण राज
पुरी में आनंद भयो ...

आठ घाट के रावन मारे
मेघनाद बलवान
कुम्भकरण से जोधा मारे ...
राज्य विभीषण पाए
पुरी में आनंद भयो ....

मात कौशल्या करें आरती
सखियाँ मंगल गाएँ
घर-घर बाजे अनंद बधैया
तुलसीदास गुण गायें ....
पुरी में अनंद भयो ....



Tuesday, March 20, 2012

आज फिर जीने की तमन्ना है ....!!

आज आपको अपना गाया  हुआ एक गीत सुनाने का मन है ..!गीत ज़रूर सुनिए ...पर उससे पहले कुछ संगीत शास्र भी ....

रस-परिपाक में राग और वाणी के अतिरिक्त लय भी एक प्रमुख तत्व  है ।भाव के अनुकूल शब्दों की प्रकृति जान कर उचित लय का प्रयोग संगीत के सौंदर्य वर्द्धन   में होता है ।ठीक उसी प्रकार ,जैसे करुना की अभिव्यंजना के समय मनुष्य की क्रीडाओं में ठहराव आ जाता है और चपलता नष्ट हो जाती है ,परन्तु उत्साह और क्रोध के अवसर पर उसकी क्रियाओं में तीव्रता आ जाती है ।इसीलिए करुण रस के परिपाक के लिए विलंबित लय हास्य और श्रृंगार के लिए मध्य लय ,तथा वीर,रौद्र,अद्भुत एवं विभत्स रस  के  लिए द्रुत लय का प्रयोग प्रभावशाली सिद्ध होता है ।गीत की रसमयता ,छंद और ताल का सामंजस्य ,गायक-वादकों की परस्पर अनुकूलता तथा स्वर और लय की रसानुवर्तिता इत्यादि विशेषताएं मिलकर संगीत में सौंदर्य बोध  का कारण बनती हैं ।
  




Thursday, March 15, 2012

संगीत में काकु.....



भिन्न कंठ ध्वनिर्धीरै: काकुरित्यभिदीयते |

ब्रह्मकमल ..

अर्थात-कंठ की भिन्नता से ध्वनी में जो भिन्नता पैदा होती है ,उसे 'काकु' कहते हैं ।ध्वनी या आवाज़ में मनोभावों को व्यक्त करने की अद्भुत शक्ति होती है ।कंठ में जो ध्वनि- तंत्रियाँ हैं उसके स्पंदन से ध्वनी निकलती है ।
ध्वनि में मनोभावों को व्यक्त करने की विचित्र शक्ति है |शोक,भय,प्रसन्नता,प्रेम आदि भावों को व्यक्त करने के लिए जब ध्वनि या आवाज़ में भिन्नता आती है ,तब उसे काकु कहते हैं |'काकु 'का प्रयोग मनुष्य तो करते ही हैं ,पशुओं में भी 'काकु ' का प्रयोग भली-भाँती पाया जाता है |उदाहरणार्थ ,एक कुत्ता जब किसी चोर के ऊपर भौंकता है ,उसकी ध्वनि में भयंकरता होती है ;वही कुत्ता जब अपने मालिक के साथ घूमने की व्यग्रता प्रकट करता है तो उसकी ध्वनि या काकु  बदल जाती है |
     पशुओं की अपेक्षा मानव जाती में काकु  का प्रयोग विशेष रूप से पाया जाता है |एक शब्द है-जाओ |इस शब्द को काकु  के विभिन्न प्रयोगों  से देखिये ....मालिक नौकर से कहता है जाओ ...आज्ञा भाव,
माँ अपने बच्चे को मना  कर स्कूल भेजती है ...थोड़ा लाड़,प्यार या मानाने का भाव |इस प्रकार कई जगह काकु  का प्रयोग होता है |इसी प्रकार गायन में भी काकु  का प्रयोग होता है |काकु  के सुघड़ प्रयोग से भाव प्रबल गायकी होती है |संगीत को करत की विद्या कहा जाता है |अर्थात कुछ बातें एक गुरु ही अपने शिष्यों को सिखा पाते  हैं |...!स्वरों को किस प्रकार लेना कि भाव स्पष्ट हों ...ये संगीत में बहुत ज़रूरी है |कभी कभी एक ही गीत दो भिन्न लोगों से सुनने पर प्रभाव अलग होता है ।यही काकु का प्रभाव है ।
नाटक में भी काकू का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है ...!तो इस प्रकार काकु  के अंदर एक विचित्र शक्ति है ,जिसके द्वारा भावों की अभिव्यंजना में स्निग्धता,माधुर्य तथा  रस की सृष्टि होती है |संगीत के लिए तो काकु  का प्रयोग बहुत ही महत्व रखता है |

Friday, March 9, 2012

भारतीय संगीत की उत्पत्ति ....!!


''संगीत- दर्पण'' के लेखक दामोदर पंडित (सन १६२५ ई .)के मतानुसार ,संगीत की उत्पत्ति वेदों के निर्माता ,ब्रह्मा  द्वारा  ही हुई ।ब्रह्मा ने जिस संगीत को शोधकर निकाला  ,भारत मुनि ने महादेव के सामने जिसका प्रयोग किया ,तथा जो मुक्तिदायक है वो मार्गी संगीत कहलाता है|
इसका प्रयोग ब्रह्मा के बाद भारत ने किया ।वह अत्यंत प्राचीन तथा कठोर सांस्कृतिक व धार्मिक नियमों से जकड़ा हुआ था ,अतः आगे इसका प्रचार ही समाप्त हो गया ।
एक विवेचन में सात  स्वरों की उत्पत्ति पशु-पक्षियों  द्वारा इस प्रकार बताई गयी है :

मोर से षडज (सा)
चातक से रिशब (रे)
बकरे से गंधार  (ग )
कौआ से मध्यम  (म)
कोयल से पंचम  (प)
मेंडक से धैवत  (ध)
हाथी से निषाद  (नि)
स्वर की उत्पत्ति हुई ।

एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो सातों स्वरों की नाद निकाल सकता है ...!



Sunday, March 4, 2012

हार्मनी ....और....मेलोडी

हार्मनी :  दो या दो से अधिक स्वरों को एक साथ बजने से उत्पन्न मधुर भाव को हार्मनी या स्वर संवाद कहते हैं ।उदाहरण के लिए सा,ग,प या ... सां स्वरों को एक साथ बजने से हार्मनी की रचना होगी।पाश्चात्य संगीत हार्मनी पर ही आधारित है ।


मेलोडी :  स्वरों के क्रमिक उच्चारण या वादन को मेलोडी कहा गया है ।जैसे सा,ग,प आदि एक दुसरे के बाद गाये  बजाये जाएँ तो मेलोडी किन्तु यदि इन्हें एक साथ बजाय जाये तो सम्मिलित स्वर हार्मनी कहलायेंगे ।हमारी हिन्दुस्तानी संगीत मेलोडी प्रधान है क्योंकि क्रमिक स्वर उच्चारण इसकी विशेषता है ।
  • मेलोडी व्यक्ति की आतंरिक भावनाओं को और हार्मनी बाह्य वातावरण को व्यक्त करने में सफल होती है । 
  • व्यक्तिगत भावों के लिए मेलोडी और सामूहिक भाव प्रदर्शन के लिए हार्मनी उपयुक्त है ।जैसे -एक व्यक्ति जब अपनी माँ से विदा मांग रहा है तो उसके मनोभावों को व्यक्त करने के लिए मेलोडी उपयुक्त होगी ।किन्तु एक सुंदर दृश्य जैसे -नदी का किनारा ,पक्षियों का कलरव ,डूबता सूर्य,दूर से आती हुई संगीत-ध्वनी आदि को व्यक्त करने में हार्मनी उपयुक्त होगी ।