सगीत और कविता एक ही नदी की दो धाराएँ हैं ...इनका स्रोत एक ही है किन्तु प्रवाह भिन्न हो जाते हैं ...इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने ये नया ब्लॉग शुरू किया है ताकि दोनों को अपना समय दे सकूं ...!!आशा है आपका सहयोग मिलेगा.......!!
नमस्कार आपका स्वागत है

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Wednesday, October 1, 2014
Saturday, September 29, 2012
सप्रेम हरि स्मरण .....!!!!
शरीर से भगवान का भजन और भगवतस्वरूप जगत के प्राणियों की सेवा बने ,तभी शरीर की सार्थकता है ,नहीं तो शरीर नरकतुल्य है अर्थात ऐसा जीना कोई सार्थक जीना नहीं है ...!!
श्री शंकरचार्य जी ने कहा है ''को वास्ति घोरो नरकः स्वदेहः ।"
और तुलसीदास जी कहते हैं ..
."ते नर नरक रूप जीवत जग भव-भंजन -पद -बिमुख अभागी ।"
भजन और सेवा भाव तब तक जीवित रहे हमारे अन्दर जब तक किसी भीषण रोग से आक्रान्त हो हम शैया ही न पकड़ ले ...!!रात दिन सिर्फ शरीर को धोने पोछने और सजाने में ही लगे रहना ....आत्मा का चिंतन नहीं करना ....ज़रा भी बुद्धिमानी नहीं है ...!!
किसी भी प्रकार की कला साधना आत्मा की यात्रा है .....!
आत्मा की यात्रा है जो प्रभु तक पहुंचेगी ही ...!!मनुष्य की योनि मिली तो है ....किन्तु जन्म-मृत्यु और जरा व्याधि से ग्रस्त इस देह का कोई भरोसा नहीं ...,कब नष्ट हो जाय ....!!!जो समय हाथ आया है उसका सदुपयोग करना हमारे ही हाथ में है ...!!
खेद की बात है ...मनुष्य शरीर की सेवा में ,इसके लिए भोगों को जुटाने में ही दिन-रात व्यस्त रहता है ........!!अप्राकृत भगवदीय प्रेमरस के तो समीप भी वह नहीं जाना चाहता ...!!जिसके ध्यान मात्र से प्राणों मे अमृत का झरना फूट निकलता है ,उस भगवान से सदा दूर रहना चाहता है...!!श्रीमद्भागवत में कहा -वह हृदय पत्थर के तुल्य है ,जो भगवान के नाम -गुण-कीर्तन को सुनकर गद्गद् नहीं होता ,जिसके शरीर मे रोमांच नहीं होता और आँखों मे आनंद के आँसू नहीं उमड़ आते |
''हिय फाटहु फूटहु नयन जरौ सो तन केही काम |
द्रवइ स्त्रवई पुलकई नहीं तुलसी सुमिरत राम || "
जब प्रभु कृपा सुन कर ...भजन सुन कर ही इतना आनंद है ...तो गाने वाले की हृदय की बात सोचिए ....प्रभु की उपस्थिति सदैव बनी ही रहती है ...!!
श्रीचरणों मे नत मस्तक ही रहता है मन |अपने सुरों के ....अपने ईश्वर के पीछे ही भागता रहता है और इस तरह आत्मसात करता है स्वरों को अपनी आत्मा में ...निरंतर प्रभु की ओर अग्रसर होता हुआ ॥...हर क्षण प्रभु से दूरी घटती हुई ....!!
लता जी सुरों की देवी ही हैं ....
स्वरों से इतना प्रेम ....आज के युग में साक्षात मीरा बाई स्वरूप ही .....!!
बहुत ढूँढकर आपके लिए ये भजन लाई हूँ .....स्वर और ईश्वर का क्या रिश्ता है ...ये भजन सुन कर आप समझ पाएंगे ....
हरि हरि हरि हरि सुमिरन
हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो हरि चरणारविन्द उर धरो ..
हरि की कथा होये जब जहाँ गंगा हू चलि आवे तहां ..
यमुना सिंधु सरस्वती आवे गोदावरी विलम्ब न लावे ..
सर्व तीर्थ को वासा तहाँ सूर हरि कथा होवे जहां ..
अपनी धरोहर ...
संगीत से ...शास्त्रीय संगीत से जुड़े रहें ...
बहुत आभार .....
Saturday, July 14, 2012
भूली बिसरी बातें .....
विभिन्न प्रांतोंमे प्रादेशिक संस्कृति की आवश्यकता के अनुसार भिन्न-भिन्न अवसरों पर जो गीत गाये जाते हैं ,उसे लोक-संगीत कहा गया है |लोक-संगीत के संस्कार - युक्त संस्करण को शास्त्रीय संगीत की संज्ञा दी गयी है |क्लिष्ट्ता बढ़ जाने के कारण शास्त्रीय संगीत समाज के लिये अरंजक और दुरूह होता चला गया |
कलाओं का उद्देश्य भावनाओं के उत्कर्ष द्वारा रसानुभूति कराना है |स्वर,ताल और लय ,मन और मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं ,इसलिये संगीत का महत्व बहुत ज्यादा है |शास्त्रीया संगीत में तकनीकी विशेषतायें अधिक आ जाने के कारण वह लोक-संगीत की तरह जन-मन तक नहीं पहुंचता .....!लोग इसके नाम से ही घबरा जाते हैं ...!!बहुत मेह्नत और सतत प्रयास की वजह से ....ना तो आम लोग सीख पाते हैं ...ना सुन पाते हैं ...ना समझ पाते है ....!!और इसके विपरीत लोक-संगीत सहज ग्राह्य होने के कारण जन-मन को आकर्षित करता है |जीवन से जुड़ी हुई स्थितियाँ जब लोक्गीतों के माध्यम से फूटतीं हैं ,तो अनायास ही रस की वर्षा करने लगती हैं |सरल शब्दावली सभी की समझ मे आ जाती है इसलिये सभी लोगों के हृदय से जुड़ती है ...!!जन्म से लेकर मृत्यु तक के गीत इतनी स्वछंदतापूर्वक प्रकट होते हैं कि मनुष्य अपने समाज और अपनी मिट्टी से अनायास ही जुड़ जाता है ...!!
व्यक्ति और समाज के सुख और दुख का प्रतिबिम्ब लोक संगीत है ,यह कहना कोइ अत्युक्ति नहीं|
लोक संगीत का छंद यद्यपि संक्षिप्त होता है ,परंतु भाव के अनुकूल होने से वह मन मस्तिष्क पर पूरा प्रभाव डालता है|भावों की सनातनता के कारण लोक संगीत कभी पुराना नहीं पड़ता वह सदाबहार है ...|गायक और श्रोता के बीच सीधा जुड़ाव होने के कारण भाव सम्प्रेषण की प्रक्रिया में लोक-संगीत सबसे अधिक सक्षम है |लोक-संगीत से प्रभावित होकर ही श्री रवींद्रनाथ टैगोर ने शास्त्रीय संगीत के धरातल पर हृदय को छूनेवाले स्वारों को शब्दों का चोला पहनाकर ,एक नई गान पद्धतिका निर्माण किया था,जो रवींद्र-संगीत के नाम से जानी जाती है |
सावन के इस मौसम मे आइये एक कजरी सुनिये ........
कलाओं का उद्देश्य भावनाओं के उत्कर्ष द्वारा रसानुभूति कराना है |स्वर,ताल और लय ,मन और मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं ,इसलिये संगीत का महत्व बहुत ज्यादा है |शास्त्रीया संगीत में तकनीकी विशेषतायें अधिक आ जाने के कारण वह लोक-संगीत की तरह जन-मन तक नहीं पहुंचता .....!लोग इसके नाम से ही घबरा जाते हैं ...!!बहुत मेह्नत और सतत प्रयास की वजह से ....ना तो आम लोग सीख पाते हैं ...ना सुन पाते हैं ...ना समझ पाते है ....!!और इसके विपरीत लोक-संगीत सहज ग्राह्य होने के कारण जन-मन को आकर्षित करता है |जीवन से जुड़ी हुई स्थितियाँ जब लोक्गीतों के माध्यम से फूटतीं हैं ,तो अनायास ही रस की वर्षा करने लगती हैं |सरल शब्दावली सभी की समझ मे आ जाती है इसलिये सभी लोगों के हृदय से जुड़ती है ...!!जन्म से लेकर मृत्यु तक के गीत इतनी स्वछंदतापूर्वक प्रकट होते हैं कि मनुष्य अपने समाज और अपनी मिट्टी से अनायास ही जुड़ जाता है ...!!
व्यक्ति और समाज के सुख और दुख का प्रतिबिम्ब लोक संगीत है ,यह कहना कोइ अत्युक्ति नहीं|
लोक संगीत का छंद यद्यपि संक्षिप्त होता है ,परंतु भाव के अनुकूल होने से वह मन मस्तिष्क पर पूरा प्रभाव डालता है|भावों की सनातनता के कारण लोक संगीत कभी पुराना नहीं पड़ता वह सदाबहार है ...|गायक और श्रोता के बीच सीधा जुड़ाव होने के कारण भाव सम्प्रेषण की प्रक्रिया में लोक-संगीत सबसे अधिक सक्षम है |लोक-संगीत से प्रभावित होकर ही श्री रवींद्रनाथ टैगोर ने शास्त्रीय संगीत के धरातल पर हृदय को छूनेवाले स्वारों को शब्दों का चोला पहनाकर ,एक नई गान पद्धतिका निर्माण किया था,जो रवींद्र-संगीत के नाम से जानी जाती है |
सावन के इस मौसम मे आइये एक कजरी सुनिये ........
Sunday, April 8, 2012
tabla ...झपताल
झपताल
इसमें दस मात्राएँ होतीं हैं ।२-३-२-३ मात्र के चार विभाग होते हैं ।इसके बोल हैं ....
धी ना ।धी धी ना ।ती ना ।धी धी ना .
X 2 0 3
1,3,8 पर ताली और छटवीं मात्र खाली ।
संगीत क्रियात्मक शास्त्र है इसलिए ये बहुत सुंदर झपताल पर कुछ ऐसी सामग्री मिली ,सोचा आपको बताऊँ ।झपताल क्या है कुछ तो समझ आइयेगा ही ।
इसमें दस मात्राएँ होतीं हैं ।२-३-२-३ मात्र के चार विभाग होते हैं ।इसके बोल हैं ....
धी ना ।धी धी ना ।ती ना ।धी धी ना .
X 2 0 3
1,3,8 पर ताली और छटवीं मात्र खाली ।
संगीत क्रियात्मक शास्त्र है इसलिए ये बहुत सुंदर झपताल पर कुछ ऐसी सामग्री मिली ,सोचा आपको बताऊँ ।झपताल क्या है कुछ तो समझ आइयेगा ही ।
Sunday, March 4, 2012
हार्मनी ....और....मेलोडी
हार्मनी : दो या दो से अधिक स्वरों को एक साथ बजने से उत्पन्न मधुर भाव को हार्मनी या स्वर संवाद कहते हैं ।उदाहरण के लिए सा,ग,प या ...म ध सां स्वरों को एक साथ बजने से हार्मनी की रचना होगी।पाश्चात्य संगीत हार्मनी पर ही आधारित है ।
मेलोडी : स्वरों के क्रमिक उच्चारण या वादन को मेलोडी कहा गया है ।जैसे सा,ग,प आदि एक दुसरे के बाद गाये बजाये जाएँ तो मेलोडी किन्तु यदि इन्हें एक साथ बजाय जाये तो सम्मिलित स्वर हार्मनी कहलायेंगे ।हमारी हिन्दुस्तानी संगीत मेलोडी प्रधान है क्योंकि क्रमिक स्वर उच्चारण इसकी विशेषता है ।
मेलोडी : स्वरों के क्रमिक उच्चारण या वादन को मेलोडी कहा गया है ।जैसे सा,ग,प आदि एक दुसरे के बाद गाये बजाये जाएँ तो मेलोडी किन्तु यदि इन्हें एक साथ बजाय जाये तो सम्मिलित स्वर हार्मनी कहलायेंगे ।हमारी हिन्दुस्तानी संगीत मेलोडी प्रधान है क्योंकि क्रमिक स्वर उच्चारण इसकी विशेषता है ।
- मेलोडी व्यक्ति की आतंरिक भावनाओं को और हार्मनी बाह्य वातावरण को व्यक्त करने में सफल होती है ।
- व्यक्तिगत भावों के लिए मेलोडी और सामूहिक भाव प्रदर्शन के लिए हार्मनी उपयुक्त है ।जैसे -एक व्यक्ति जब अपनी माँ से विदा मांग रहा है तो उसके मनोभावों को व्यक्त करने के लिए मेलोडी उपयुक्त होगी ।किन्तु एक सुंदर दृश्य जैसे -नदी का किनारा ,पक्षियों का कलरव ,डूबता सूर्य,दूर से आती हुई संगीत-ध्वनी आदि को व्यक्त करने में हार्मनी उपयुक्त होगी ।
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