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Thursday, December 6, 2012

छाई हेमंत की बहार .....


छाई हेमंत की बहार .....

 खिल गईं ....
धरा पर  कलियाँ हज़ार ....
अम्बर से ओस झरे ...
धरा हृदय प्रीत भरे ...
ओस सी फूल पर प्रीत पगे ...
पोर-पोर    भीगे ......!!



.डाल-डाल  ....
पात पात ...
प्रीत बोले .....
हिंडोली  मन  हिंडोला झूले .......
जिया  ले हिचकोले .....
हिया  में छब पिया की ...
चितवन  में  सपन  डोले ......
री सखी .....
पपीहा पिउ-पिउ बोले ....!!!!
हेमंत की चले मंद बयार.....
''हिंडोली '' हौले हौले अवगुंठन खोले .....
आज धरा का  तन-मन  डोले ....!!!!!!!!


***********************

* ''हिंडोली '' राग -भिन्न षडज  का ही दूसरा नाम है ,जो हेमंत ऋतु  में गया जाने वाला राग है ।आइये सुश्री अश्विनी देशपांडे जी से राग भिन्न षडज सुने ...जो इसी ऋतु  का राग है ....



Saturday, September 29, 2012

सप्रेम हरि स्मरण .....!!!!





शरीर से भगवान का भजन और भगवतस्वरूप जगत के प्राणियों की सेवा बने ,तभी शरीर की सार्थकता है ,नहीं तो शरीर नरकतुल्य है अर्थात ऐसा जीना कोई सार्थक जीना नहीं है ...!!


श्री शंकरचार्य जी ने कहा है ''को वास्ति  घोरो नरकः स्वदेहः ।"

और तुलसीदास जी कहते हैं ..

."ते नर नरक रूप जीवत जग भव-भंजन -पद -बिमुख अभागी ।"

भजन और सेवा भाव तब तक जीवित रहे हमारे अन्दर जब तक किसी भीषण रोग से आक्रान्त हो हम शैया ही न पकड़ ले ...!!रात दिन सिर्फ शरीर को धोने पोछने और सजाने में ही लगे रहना ....आत्मा का चिंतन नहीं करना ....ज़रा भी बुद्धिमानी नहीं है ...!!
किसी भी प्रकार की कला साधना आत्मा की यात्रा है .....!
आत्मा की यात्रा है जो प्रभु तक पहुंचेगी ही ...!!मनुष्य की योनि  मिली तो है ....किन्तु जन्म-मृत्यु और जरा व्याधि से ग्रस्त इस देह का कोई भरोसा नहीं ...,कब नष्ट हो जाय ....!!!जो समय हाथ आया है उसका सदुपयोग  करना हमारे ही हाथ में है ...!!

खेद की बात है ...मनुष्य शरीर की सेवा में ,इसके लिए भोगों को जुटाने में ही दिन-रात व्यस्त रहता है ........!!अप्राकृत भगवदीय  प्रेमरस के तो समीप भी वह नहीं जाना चाहता ...!!जिसके ध्यान मात्र से प्राणों मे अमृत का झरना फूट निकलता है ,उस भगवान से सदा दूर रहना चाहता है...!!श्रीमद्भागवत में कहा -वह हृदय पत्थर के तुल्य है ,जो भगवान के नाम -गुण-कीर्तन को सुनकर  गद्गद् नहीं होता ,जिसके शरीर मे रोमांच नहीं होता और आँखों मे आनंद के आँसू नहीं उमड़ आते |

''हिय फाटहु फूटहु नयन जरौ सो तन केही काम |
द्रवइ स्त्रवई पुलकई नहीं तुलसी सुमिरत राम || "

जब प्रभु कृपा सुन कर ...भजन सुन कर ही इतना आनंद है ...तो गाने वाले की हृदय की बात सोचिए ....प्रभु की उपस्थिति  सदैव बनी ही रहती है ...!!
श्रीचरणों मे नत मस्तक ही रहता है मन |अपने सुरों के ....अपने ईश्वर के पीछे ही भागता रहता है और इस तरह आत्मसात करता है स्वरों को अपनी आत्मा में ...निरंतर प्रभु की ओर अग्रसर होता हुआ ॥...हर क्षण प्रभु से दूरी घटती हुई ....!!

लता जी सुरों की देवी ही हैं ....
स्वरों से इतना प्रेम ....आज के युग में साक्षात मीरा बाई स्वरूप ही .....!!

बहुत ढूँढकर आपके लिए ये भजन लाई हूँ .....स्वर और ईश्वर का क्या रिश्ता है ...ये भजन सुन कर आप समझ पाएंगे ....



हरि हरि हरि हरि सुमिरन 
हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो हरि चरणारविन्द उर धरो .. 
हरि की कथा होये जब जहाँ गंगा हू चलि आवे तहां .. 
यमुना सिंधु सरस्वती आवे गोदावरी विलम्ब न लावे .. 
सर्व तीर्थ को वासा तहाँ सूर हरि कथा होवे जहां .. 

अपनी धरोहर ...
संगीत से ...शास्त्रीय संगीत से जुड़े रहें ...
बहुत आभार .....

Monday, September 24, 2012

आज श्याम मोह लीनो बाँसुरी बजाये के ...!!


आज श्याम मोह लीनो बाँसुरी बजाये के ...!!
मुझे तो स्पष्ट सुनाई दे रही है कानो में बाँसुरी की वो आवाज़ जैसे दे रही हो संदेसा हरि  की उपस्थिति का ...


आज यह पोस्ट लिखते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है ,इसी महीने मेरे इस अतिप्रिय ब्लॉग को एक वर्ष हो गया ।

जहाँ तक हो सका है शास्त्रीय संगीत के प्रति आप लोगों में रूचि जगाने का प्रयत्न किया है ।इस विधा को सीखने के लिए अत्यंत धैर्य ,लगन और समय की आवश्यकता  होती है ।सुर साधना एक आराधना ही है ।क्योंकि सुर शरीर के नहीं ...आत्मा के साथी होते हैं ...!!और उन्हीं की आराधना में मन ऐसा लिप्त होता है  कि फिर  छोटी से छोटी उपलब्द्धि  भी साधक को  किसी बड़े पुरस्कार से कम नहीं लगती ।ईश्वर का प्रसाद ही लगती है ।सालों तक रियाज़ करे तब कहीं कुछ गुण  गाने लायक बनता है एक साधक ।जब सुर ,मन का मीत बन ,समझ में आने लगते हैं ,साथ साथ चलते हैं ...मन की प्रसन्नता अवर्णनीय हो जाती है ।उन्हीं सुरों से किसी भी कारण  जब दूर होता है मन ...एक वेदना से घिर जाता है ...!!यही एक साधक की जीवन यात्रा है ...!!

   संगीत की यात्रा बहुत कठिन है ...क्योंकि अपनी साधना से ,इस राह से ..हटने पर साधक अभिशप्त हो कुछ भी हासिल नहीं कर सकता ..!!सुर साधते हुए समस्त दुनिया भूल कर ही सुर लगाना पड़ता है ।
   "जग त्यक्त कर ही तुममे अनुरक्त हुई ...!!"  इसीलिए इसे ध्यान का एक रूप माना जाता है ।

माँ को श्रद्धांजलि देते हुए इस ब्लॉग पर लिखना प्रारंभ किया था ।आज अत्यंत हर्ष है कि उन्हीं के आशीर्वाद से ही ये संगीत यात्रा चलती रही है ...!!आप सभी गुणीजनों का आशीर्वाद  एवं स्नेह भी मिलता रहा है ...!!किसी भी संगीत साधक की ये ख़्वाहिश   होती है कि उसके सुर श्रोता के ह्रदय तक पहुंचें .....और उन सुरों पर जब श्रोताओं की प्रशंसा मिलती है ...तो हाथ जोड़ नमन ही करता है एक साधक ...!!मैं भी ह्रदय से आभार प्रकट करती हूँ सुधि पाठकों का ...श्रोताओं का ...!!आपको समय समय पर शास्त्र के विषय में जानकारी दी और अपने गाये हुए कुछ गीत और भजन भी सुनाये ...!!
श्याम भजन मेरे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्द्धि है ...वो भजन जिसे मैंने लिखा .....धुन बनाई .. और स्वयं ही गाया भी ..!!आभारी हूँ आप सभी की पुनश्च आप सभी ने बहुत मन से उसे सराहा भी ...!!

भरसक प्रयत्न रहता है कि शास्त्रीय संगीत को,भारतीय संगीत को ... वो मान वो मर्यादा मिलती रहे जिसका वो हक़दार  है ।इस प्रकार अपनी संस्कृति की थोड़ी भी रक्षा कर सकूं तो ईश्वर के प्रति अपना आभार मानूँगी ...!!अपना जीवन सफल समझूँगी  ।


आइये अब संजीव अभ्यंकर जी से आरत  ह्रदय से उनका गाया  एक खूबसूरत मीरा भजन सुनिए ....और आँख मूँद कर खो जाइए उस दुनियां में जिसे शास्त्रीय संगीत कहते हैं ....!!दावे से कहती हूँ ....प्रभु दर्शन हो  ही जायेंगे .......!!



कोई कहियो  रे  प्रभु  अवन  की , अवन  की  मन -भवन  की  |
आप  न  आवे  लिख  नहीं  भेजे , बाण   पड़ी  ललचावन  की  |
ये  दो  नैन  कह्यो  नहीं  माने , नदिया  बहे  जैसे सावन  की  |
कहा  करू , कछु  नहीं  बस  मेरो , पाख  नहीं उड़ जावन   की
मीरा  कहे  प्रभु  कब रे  मिलोगे , चेरी  भाई  हु  तेरे  दावन   की  |









आगे भी इसी तरह अपना स्नेह एवं आशीर्वाद बनाये रहिएगा ...!!और इस ब्लॉग को अपना अमूल्य  समय देते रहिएगा .........!!
बहुत आभार ....!!





Sunday, August 26, 2012

सामवेदकालीन संगीत .....!!



वैदिक युग भारत के सांस्कृतिक इतिहास में प्राचीनतम माना जाता है |इस युग में चार वेदों का विस्तार हुआ |जिनके नाम हैं-ऋगवेद ,यजुर्वेद,अथर्ववेद और सामवेद |इनमें ऋगवेद विश्व का प्रचीनतम ग्रंथ है जिसमें संग्रहीत मंत्रों को ऋक या हिन्दी में ऋचा कहते हैं |सभी मंत्र छंदोबद्ध हैं जिनमे विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ उपलब्ध होती हैं |
यजुर्वेद छंदोबद्ध नहीं है तथा उसमे यज्ञों का विधान है|
अथर्ववेद में सुखमूलक   एवम कल्यानप्रद मंत्रों का संग्रह तथा तांत्रिक विधान दिया गया है |
सामवेद  मंत्रों का गेय रूप है |ऋगवेद को अन्य वेदों का मूल बताया गया है |

जब किसि वाक्य का स्वरहीन उच्चारण किया जता है तो उसे वाचन कहते हैं |यदि वाक्य मे ध्वनि ऊँची-नीची तो हो लेकिन स्वर अपने ठीक स्थान पर ना लगें तो इस क्रिया को पाठ कहते हैं |और जब किसि वाक्य को इस ढंग से गाया जये कि उसमे स्वर अपने ठीक ठीक स्थान पर लगें तो उस क्रिया को गान कहते हैं |इसलिये  संगीत के विद्यार्थी को बताया जाता है कि संगीत का मूल सामवेद (ऋग्वेद का  गेय रूप है )....!
वेद का पाठ्य रूप उन लोगों के लिये उपयोगी है ,जो नाट्य के विद्यार्थी हैं |

पाठ्य का मूल ऋग्वेद ,
गीत का मूल सामवेद ,
अभिनय का मूल यजुर्वेद ,
तथा ...
रसों का मूल अथर्ववेद में है |

Saturday, July 21, 2012

श्याम ने न आवन की ठानी .....

इस सुर मंदिर पर आज नमन और श्रद्धा के साथ अपनी  इस नई कोशिश को रख रही हूँ ....बस बंद आँखों से कल्पना ही कर रही हूँ ...माँ आप होतीं तो आपके चेहरे के भाव क्या होते ...!!

यूँ तो किसी गीत को स्वरबद्ध  करना अपने आप मे एक अलग विधा है |जैसे कविता हर कोई नहीं लिख सकता ,उसी प्रकार धुन भी हर कोइ नहीं बना सकता |जब इसकी धुन बनाने लगी तभी समझ मे आया कितना मुश्किल है धुन बनाना |लेकिन यही धुन बनाने के लिये मुझे अपनी धुन की पक्की होना पड़ा था ...तभी इस धुन को खोज पाई मैं ...!!
श्याम धुन की खोज ही .... धुन बन गयी  थी  मेरी ....जैसे श्याम दिखते  नहीं हैं .. ... .....प्रभु को ढूंढने की ,धुन को ढूँढने की मुश्किल और भी बढ़ जाती है ... ..... पूरी आस्था से चाह रही थी ...ऐसी धुन बने जिसे मह्सूस किया जा सके ..... सुन कर धुन हृदय तक पहुंचे .....  लगी ही रही ....अपनी पूरी आस्था के साथ ...तब तक जब तक ये धुन नहीं मिली  मुझे ....
कभी कभी बहुत खुशी भी अभिव्यक्त नहीं कर पाता मन ...

इस धुन को  बना कर जो खुशी मिली है मुझे वो व्यक्त नहीं कर पा रही हूँ मैं ...

 तो चलिये अब ये गीत सुनिये ....मेरे लिये जीवन की बहुत बड़ी उपलब्द्धि ....

राग खमाज पर आधारित है ये गीत |खमाज थाट का राग है ये ...!इस राग का उपयोग उपशास्त्रीय संगीत मे बहुत किया जाता है |इस राग में बड़ा खयाल नहीं गाया जाता क्योंकि इसकी प्रकृति चंचल है ,ठहराव कम है ...और श्रिंगार रस प्रधान है ....!!टप्पे,ठुमरी ,दादरा आदि में बहुतायत से इसका प्रयोग होता है ...!!






आशा है मेरा प्रयास पसंद आया होगा ....बहुत आभार ....!!

Saturday, July 14, 2012

भूली बिसरी बातें .....

विभिन्न प्रांतोंमे प्रादेशिक संस्कृति की आवश्यकता के अनुसार भिन्न-भिन्न अवसरों पर जो गीत गाये जाते हैं ,उसे लोक-संगीत कहा गया है |लोक-संगीत के संस्कार - युक्त संस्करण को शास्त्रीय संगीत की संज्ञा दी गयी है |क्लिष्ट्ता बढ़ जाने के कारण शास्त्रीय संगीत समाज के लिये अरंजक और दुरूह होता चला गया |
                                 

कलाओं का उद्देश्य भावनाओं के उत्कर्ष द्वारा रसानुभूति कराना है |स्वर,ताल और लय ,मन और मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं ,इसलिये संगीत का महत्व बहुत ज्यादा है |शास्त्रीया संगीत में तकनीकी विशेषतायें अधिक आ जाने के कारण वह लोक-संगीत की तरह जन-मन तक नहीं पहुंचता .....!लोग इसके नाम से ही घबरा जाते हैं ...!!बहुत मेह्नत और सतत प्रयास की वजह से ....ना तो आम लोग सीख पाते हैं ...ना सुन पाते हैं ...ना समझ पाते है ....!!और इसके  विपरीत लोक-संगीत सहज ग्राह्य होने के कारण जन-मन को आकर्षित करता है |जीवन से जुड़ी हुई स्थितियाँ जब लोक्गीतों के माध्यम से फूटतीं हैं ,तो अनायास ही रस की वर्षा करने लगती हैं |सरल शब्दावली सभी की समझ मे आ जाती है इसलिये सभी लोगों के हृदय से जुड़ती है ...!!जन्म से लेकर मृत्यु तक के गीत इतनी स्वछंदतापूर्वक प्रकट होते हैं कि मनुष्य अपने  समाज और अपनी मिट्टी से अनायास ही जुड़ जाता है ...!!
व्यक्ति और समाज के सुख और दुख का प्रतिबिम्ब लोक संगीत है ,यह कहना कोइ अत्युक्ति नहीं|

लोक संगीत का छंद यद्यपि संक्षिप्त होता है ,परंतु भाव के अनुकूल होने से वह मन मस्तिष्क पर पूरा प्रभाव डालता है|भावों की सनातनता के कारण लोक संगीत कभी पुराना नहीं पड़ता वह सदाबहार है ...|गायक और श्रोता के बीच सीधा जुड़ाव होने के कारण भाव सम्प्रेषण की प्रक्रिया में लोक-संगीत सबसे अधिक सक्षम है |लोक-संगीत से प्रभावित होकर ही श्री रवींद्रनाथ टैगोर ने शास्त्रीय संगीत के धरातल पर हृदय को छूनेवाले स्वारों को शब्दों का चोला पहनाकर ,एक नई गान पद्धतिका निर्माण किया था,जो रवींद्र-संगीत के नाम से जानी जाती है |

सावन के इस मौसम मे आइये एक  कजरी सुनिये ........


Saturday, May 26, 2012

संगीत और आत्मा के सम्बन्ध .....!!

संगीत के विषय में बात  करते  करते  आज मैं आपको संगीत की  शास्त्रीय संगीत के अलावा भी ....अन्यविधाओं के बारे में बताना चाहती हूँ .....


 भावुकता से हीन कोई कैसा भी पषान  ह्रदय क्यों न हो ,किन्तु संगीत विमुख होने का दावा उसका भी नहीं माना जा सकता |कहावत है गाना और रोना सभी को  आता है|संगीत की भाषा मे जिन व्यक्तियों ने अपने विवेक ,अभ्यास और तपश्चर्य के बल से स्वर और ताल पर अपना अधिकार कर लिया है ,उनका विज्ञ समाज में आदर है,उन्हें बड़ा गवैया समझा जाता है |परंतु अधिकांश जन समूह ऐसा होता है ,जो इस ललित कला की साधना और तपस्या से सर्वथा वंचित रह जाता है |ऐसे लोग भले ही घरानेदार गायकी ना करें,किंतु इन लोगों के जीवन का सम्बंध भी संगीत से प्रचुर मात्रा मे होता है |गाँव मे गाये जानेवाले लोकगीतों के विभिन्न प्रकार ,कपड़े धोते समय धोबियों का गीत,भीमकाय पषाणों को ऊपर चढ़ाते समय  श्रमिकों का गाना ,खेतों मे पानी देते समय किसानों द्वारा गाये जाने वाले गीत,पनघट पर ग्रामीण युवतियों के गीत,पशु चराते समय ग्वालों का संगीत,इस कथन की पुष्टि  के लिये यथेष्ट प्रमाण हैं|इस प्रकार के गीत तो दैनिक चर्या मे गाये जाते हैं |किसी विशेष अवसर पर जैसे ....


*शिशु जमोत्सव पर गाये जाने वले सोहर ......
*विवाह उत्सव पर गाये जाने वाले बन्ना-बन्नी
*उलहना और छेड़खानी से भरे दादरे.....


घर-परिवार  का कोइ भी अवसर क्यों ना हो ,इन गीतों और नृत्य  के बिना परिपूर्ण होता ही नहीं  है ।


संगीत मे जादू जैसा असर है ,इस वाक्य को चाहे जिस व्यक्ति के सम्मुख कह दीजिये ,वह स्वीकृती -सूचक उत्तर ही देगा,नकारात्मक नहीं|यद्यपि उसने इस वाक्य को परीक्षा की कसौटी पर कभी नहीं कसा है,तब भी अनुभवहीन होने पर भी सभी इसे क्यों मानलेते  हैं यह एक विचारणीय प्रश्न है ।उसकी यह स्वीकृति
संगीत और आत्मा   के  सम्बन्ध की पुष्टि करती है ।आत्मा सत्य का स्वरुप है ।अतः वह सत्य की सत्ता को तुरंत  स्वीकार  कर लेता है । इसका एक  कारण  संगीत   की व्यापकता  का  रहस्य तथा संगीत के सम्बन्ध में  कुछ सुनी हुई  बातों  का अनुभव भी हो सकता है ।
पावस की लाजवंती संध्याओं को श्वेत-श्याम  मेघ मालाओं से प्रस्फुटित  नन्हीं-नन्हीं बूँदों  का रिमझिम -रिमझिम  राग  सुनते ही कोयल कूक उठाती है ....पपीहे गा उठाते हैं ....मोर नाचने लगते हैं ....मन-मंजीरे  बोल  उ ठते हैं .....।लहलहाते हरे-भरे खेतों को देखकर  कृषक   आ नंद विभोर हो जाता है और अनायास ही अलाप उठता है किसी  परिचित मल्हार के बोल ।यही  वो समय होता है जबकि प्रकृति के कण -कण  में  संगीत की सजीवता भासमान  होती है ।इन  चेतनामय  घड़ियों में  प्रत्येक  जीवधारी पर  संगीत की मादकता का  व्यापक   प्रभाव  पड़ता  है ।


जीवन-पथ  के किसी भी मोड़ पर  रुक कर देख  लीजिये  ,वहीँ आपको  अलग-अलग  विधाओं में  संगीत   मिलेगा ....!!दुःख से सुख से ,रुदन से हास से ,योगसे  वियोग से   ,मृत्यु से  जीवन से  ,जीवन की प्रत्येक  अ वस्था में सगीत  की   कड़ी  ........जुड़ी ही रहती है ......!!!!!


आपके लिए आज  एक  विशेष  अनुभूती लिए हुए सुश्री नगीन तनवीर का गाया ये लोकगीत ......... ज़रूर सुनिए ......



Wednesday, May 16, 2012

संगीत की शक्ति ........(२)


भारतीय संगीत साहित्य में तानसेन से सम्बंधित कई चमत्कारिक किम्वदंतियां हैं ,जिनमे से दीपक राग द्वारा दीपक जला देना ,मेघ द्वारा वृष्टि कराना और स्वर के प्रभाव से हिरन आदि पशुओं को पास बुला लेना मुख्या रूप से प्रचलित है |इसी प्रकार ग्रीक साहित्य में  ऑरफेंस का वर्णन मिलता है ,जो संगीत के प्रभाव से चराचर जगत को हिला देता था ,समुद्र की उत्ताल तरंगों को शांत कर देता था और वायु के वेग को रोक सकता था |
                             मिल्टन ने 'पैराडाईज़ लॉस्ट ' में लिखा है कि जब ईश्वर ने सृष्टि रची,तब उसने पहले संगीत कि शक्ति से बिखरे हुए नकारात्मक तत्वों को एकत्रित किया ,तत्पश्चात सृष्टी की रचना की |ट्राइडन इसी बात को अपने सेंट असीलिया कि प्रार्थना के गीत में दिखता है |वह कहता है कि संगीत में केवल वास्तु के सृजन कि ही नहीं,लय उत्पन्न करने की भी शक्ति है ;जिस प्रकार जगत कि उत्पत्ति संगीत से है ,उसी प्रकार उसका लय भी संगीत  से ही होता है |जैसे संगीत भौतिक तत्वों का समन्वय करता है ,वैसे ही अध्यात्मक तत्वों का भी |स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही सृष्टि संगीत कि शक्ति के अधीन हैं ,इस सत्य को स्टीवेंसन ने भी स्वीकार किया है |उन्होंने अपने एक लेख में बंसी बजाते हुए प्रकृति-देव की कल्पना की है |

शास्त्र के साथ कुछ क्रियात्मक हो तो अपनी बात कि सार्थकता सिद्ध होती है खास तौर पर तब जब संगीत की शक्ति  की बात हो ...!
राग पूरिया कल्याण सुनिए .....
मरवा थाट का राग है ...

Friday, May 11, 2012

धीरे धीरे मचल ...


कभी जब अपनी पहचान ढूंढती हूँ .....एक ही आवाज़ आती है ....
मेरी आवाज़ ही पहचान है .....गर याद रहे ......!!स्वर आत्मा के साथी हैं ..!कभी साथ नहीं छोड़ते |कोई भी कला हो उसे आत्मा आत्मसात करती है |तभी कहते हैं मनुष्य कुछ मूलभूत चीज़ों के साथ जन्मता है |
        विभिन्न देशों में संगीत के प्रकार चाहे भिन्न भिन्न हों ,परन्तु प्रचार और गुणों का रूपांतर नहीं होता |संगीत का मौलिक रूप और उसके सृजनात्मक तत्त्व सभी स्थानों के संगीत में समान होते हैं |संगीत के परमाणुओं में मानव की वृत्तियों को प्रशस्त करने के साथ-साथ आत्मिक शक्ति भी निहित है |चारित्रिक उत्थान का  सर्वोत्तम साधन भी संगीत ही है |इस ललित कला  की गहराई मापी नहीं जा सकती |


ये तो हुईं कुछ शास्त्र की बातें ....अब ....
हमारी फिल्मों में भी कुछ ऐसे नायब नगमे हैं जिनको सुन कर झूम उठता है मन ....!

 आप सभी को , अनुपमा फिल्म का ....आज मैं अपना पसंदीदा गीत सुनाना चाहती हूँ ....
  ...धीरे धीरे मचल ...





Sunday, May 6, 2012

संगीत की शक्ति .....(१)

ज्ञान विज्ञानं से परिपूर्ण मानव जगत में नित नए प्रयोग हो रहे हैं |जब ये प्रयोग जीवन के विभिन्न अंग बन जाते हैं ,तब मानव फिर अभिनव अनुसन्धान में प्रवृत्त हो जाता है |यद्यपि संगीत स्वयं एक विज्ञानं है ,किन्तु अभी इसकी सिद्धी के लिए वर्षों की तपस्या अपेक्षित है |इधर कुछ समय से वैज्ञानिकों का ध्यान संगीत की ओर गया है ,किन्तु संगीत के क्रियात्मक ज्ञान के आभाव के कारण हर वैज्ञानिक इस ओर ध्यान नहीं दे सकता 
               संसार परमाणु की सत्ता स्वीकार कर चुका है और नाद के गुण से भी वो परिचित है |किन्तु नाद कि विलक्षण शक्ति अभी  अप्रकट है |जिस दिन वो प्रकट हो जायेगी ,संसार एकमत से संगीत को सर्वोपरि विज्ञानं स्वीकार कर लेगा |अणु और परमाणु का अस्तित्व उसके समक्ष नगण्य हो जायेगा |प्राचीन काल में ध्वनि के भौतिक प्रभाव  पर जो प्रयोग किये गए थे ,वे आज केवल किंवदंती  के रूप में अवशिष्ट हैं |किन्तु जो भी उन किंवदंतियों सुनता है ,वह भविष्य में उनकी सफलता के लिए आज के वैज्ञानिक उत्कर्ष को देख कर आस्थावान हो जाता है |हमारे प्राचीन आचार्य और महर्षियों ने हाइड्रोजन बम निश्चय ही नहीं बनाये थे ,किन्तु ध्वनि  विज्ञानं पर उन्होंने जो विचार व्यक्त किये थे,वे आज भी कसौटी पर खरे उतरते हैं |नाद की शक्ति पर विवेचन करने वाले अनेक ग्रन्थ आज लुप्त हैं |
                                             विज्ञानं द्वारा ये सिद्ध हो गया है कि द्रव्य (मैटर )और शक्ति (एनर्जी ),ये दोनों एक ही वस्तु हैं |मैटर को एनर्जी और एनर्जी को मैटर में परिवर्तित किया जा सकता है ,अर्थात परम तत्व एक ही है |अतः शब्द का प्रभाव बड़ा विलक्षण है |जिस प्रकार मिटटी का गुण 'गंध ' और अग्नि का गुण 'उष्णता ' है ,उसी प्रकार आकाश का गुण 'शब्द 'है |वह सदा आकाश में विद्यमान  रहता है ।इस सत्य को जान  लेने पर कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि वे शीघ्र ही किसी उपकरण की सहायता से तानसेन का गायन और भगवन श्री कृष्ण के मुख से कही गई गीता को आकाश से ग्रहण कर उन्हीं की आवाज़ में सुनवा सकेंगे ।






                                                                                                                        क्रमशः .........

Sunday, April 29, 2012

भारतीय संगीत कला की उत्पत्ति ......!!

भारतीय संगीत कला की उत्पत्ति कब और कैसे हुई इस विषय पर विद्वानों के विभिन्न मत हैं  जिनमे कुछ इस प्रकार हैं :
संगीत की उत्पत्ति आरंभ में वेदों के निर्माता ब्रह्मा द्वारा हुई |ब्रह्मा ने यह कला शिव को दी और शिव जी के द्वारा सरस्वती  जी को प्राप्त हुई |सरस्वती जी को इसीलिए 'वीणा पुस्तक धारिणी 'कहकर संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री माना  गया है |सरस्वती जी से संगीत कला का ज्ञान नारद जी को प्राप्त हुआ |नारद जी ने स्वर्ग के गन्धर्व ,किन्नर और अप्सराओं को संगीत शिक्षा दी|पृथ्वी  पर ऋषिओं ,जैसे भरत मुनि 
के माध्यम से संगीत कला आई |
                                'संगीत-दर्पण' के लेखक  दामोदर पंडित  पंडित सन-१६२५ई .के मतानुसार ,संगीत की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही हुई |भरत मुनि ने महादेव के सामने जिसका प्रयोग किया ,वो मुक्ति दायक मार्गी संगीत कहलाता है |
 फारसी के एक विद्वान का मत है कि हज़रात मूसा जब पहाड़ों पर घूम घूम कर वहाँ की छटा देख रहे थे ,उसी वक्त गैब ,आकाशवाणी हुई कि 'या मूसा हकीकी,तू अपना असा (एक प्रकार का डंडा ,जो फकीरों के पास होता है )इस पत्थर पर मार !' यह आवाज़ सुनकर हज़रात मूसा ने अपना असा जोर से उस पत्थर पर मारा ,तो पत्थर के सात टुकड़े हो गए और हर एक टुकड़े में से पानी की अलग अलग धार बहने लगी |उसी जल धारा की आवाज़ से अस्सामलेक हज़रात मूसा ने सात स्वरों की रचना की |जिन्हें सा,रे,ग,म,प,ध ,नी कहते हैं |


पाश्चात्य विद्वान फ्रायड के मतानुसार ,संगीत कि उत्पत्ति एक शिशु के समान ,मनोविज्ञान के आधार पर हुई |जिस प्रकार बालक रोना,चिल्लाना,हंसना अदि क्रियाएँ आवश्यकतानुसार स्वयं सीख जाता है ,उसी प्रकार मानव में संगीत का प्रादुर्भाव मनोविज्ञान के अधर पर स्वयं हुआ |
               इस प्रकार संगीत कि उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत पाए जाते हैं |

Saturday, April 14, 2012

वाद्यवृन्द या वृंदवादन ...!

                                                       

                                                           वाद्यवृन्द  या वृंदवादन ...!


इसे अंग्रेजी में ऑर्केस्ट्रा कहते है ।दक्षिण में इसे वाद्य कचहरी कहा जाता है ।पाणिनि -काल में वाद्यवृन्द के लिए 'तूर्य' शब्द का प्रयोग किया जाता था ।उसमे भाग लेने वाले तूर्यांग कहलाते  थे ।मुग़ल काल में नौबत कहते थे ।
वाद्यवृन्द में शास्त्रीय,अर्धशास्त्रीय तथा लोकधुनो पर आधारित रचनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं।आधुनिक वाद्यवृन्द की शुरुआत अठारवीं सदी के अंत से मानी जाती है ।विदेशों में ऑर्केस्ट्रा शब्द का प्रयोग सत्रहवीं शताब्दी से शुरू हुआ जिसे symphony कहा जाने लगा ।इसमें कई वाद्य मिलकर रचना को प्रस्तुत करते हैं जिसके द्वारा भिन्न भिन्न भावों की सृष्टी की जाती है ।इसके प्रस्तुतीकरण में ऐसा लगता है मानो  वाद्यों की कोई गाथा  प्रस्तुत की जा रही हो ।
    वर्त्तमान में वाद्यावृन्दा के विकास में उस्ताद अल्लाउद्दीन  खान ,'स्ट्रिंग "नमक प्रथम भारतीय 'मैहर -बैंड ' के संस्थापक ,विष्णुदास शिरली,पंडित रविशंकर,लालमणि मिश्र ,जुबिन मेहता ,तिमिर्बरण,अनिल बिस्वास ,पन्नालाल घोष,टी .के .जैराम  अय्यर ,विजयराघव राव और आनंदशंकर ने बहुत योगदान दिया है ।
वाद्यवृन्द और ऑर्केस्ट्रा वाद्यों की एक ऐसी भाषा है जो एकता और सामाजिक भावना का सन्देश देती है ।

Sunday, April 8, 2012

tabla ...झपताल

                                                      झपताल 

इसमें दस मात्राएँ होतीं हैं ।२-३-२-३ मात्र के चार विभाग होते  हैं ।इसके बोल हैं ....
धी  ना ।धी  धी   ना ।ती  ना ।धी  धी  ना .
X          2                 0         3

1,3,8 पर ताली   और  छटवीं मात्र खाली ।

संगीत क्रियात्मक शास्त्र है इसलिए ये बहुत सुंदर झपताल पर कुछ ऐसी सामग्री मिली ,सोचा आपको बताऊँ ।झपताल क्या है कुछ तो समझ आइयेगा ही ।



Monday, April 2, 2012

वृन्दगान .......!!

गायक और वादकों द्वारा सामूहिक रूप से जो संगीत प्रस्तुत किया जाता है उसे वृन्दगान कहते हैं ।
शास्त्रीय संगीत में वृन्दगान या समूहगान की परंपरा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है ।इसे अंगरेजी में CHOIR  या  CHOROUS कहते हैं ।ब्राह्मणों द्वारा मन्त्रों का सामूहिक उच्चारण ,देवालय में सामूहिक प्रार्थना ,कीर्तन ,भजनाथावा लोक में विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले लोक गीत समूह गान या समवेत गान के अंतर्गत आते हैं ।सभी वृन्दगानों का विषय प्रायः राष्ट्रीय ,सामाजिक अथवा सांस्कृतिक होता है ।पारंपरिक एकता,राष्ट्र के प्रति प्रेम,समाज की गौरवशाली परम्पराओं का उद्घोष वृन्दगान के द्वारा ही सिद्ध होता है ।

वृन्दगान रचना के मुक्य तत्त्व इस प्रकार निर्धारित किये जा सकते हैं :

  • साहित्यिक तत्व
  • सांगीतिक तत्व 
  • श्रेणी विभाजन
  • सञ्चालन .
वृन्दगान के विकास में वर्त्तमान कालीन जिन कलाकारों का उल्लेखनीय योगदान रहा है ,उनके नाम  हैं :
  • विक्टर प्रानज्योती ,
  • एम .वी .श्रीनिवासन,
  • विनयचन्द्र मौद्गल्य ,
  • सतीश भाटिया 
  • वसंत देसाई 
  • जीतेन्द्र अभिषेकी 
  • पंडित शिवप्रसाद .

Tuesday, March 27, 2012

वाद्यों के प्रकार ...!!




भारतीय वाद्यों को चार श्रेणियों में बांटा गया है :

१-तत वाद्य 
२-सुषिर वाद्य 
३-अवनद्य वाद्य 
४-घन वाद्य 

तत या तंतु वाद्य :इस श्रेणी में वाद्यों में तारों द्वारा स्वरों की उत्पत्ति होती है ।इनके भी दो प्रकार हैं :
  • तत वाद्य 
  • वितत वाद्य 
तत वाद्य :इसमें तार के वे साज़ आते हैं ,जिन्हें मिजराब या अन्य किसी वास्तु की टंकोर देकर बजाते हैं ।जैसे वीणा,सितार ,सरोद,तानपुरा,इकतारा आदि।
वितत वाद्य :इसमें गज की सहायता से बजने वाले वाद्य आते हैं ।जैसे इसराज,सारंगी,वायलिन इत्यादि।

सुषिर वाद्य :इसमें फूंक या हवा से बजने वाले वाद्य आते हैं।जैसे बांसुरी,हारमोनियम ,क्लारिनेट ,शहनाई,बीन,शंख इत्यादि।

अवनद्य वाद्य :इसमें चमड़े से मढ़े हुए ताल वाद्य आते हैं ।जैसे -मृदंग,तबला,ढोलक,खंजरी,नागदा,डमरू आदि ।

घन वाद्य :जब वाद्यों में चोट या अघात करने से ध्वनि उत्पन्न होती है ,उसे घन वाद्य कहते हैं ।जैसे जल तरंग,मंजीरा ,झांझ इत्यादि।

Thursday, March 22, 2012

पुरी में आनंद भयो .

साधना जी कहरवा भजनी ठेका पर ये भजन प्रस्तुत है ...!!
शुभ समय भी है ....कल से नवरात्र प्रारंभ है ...नव संवत्सर आप सभी को मंगलमय हो ....!!

घर आ गए लक्ष्मण राम
पुरी में आनंद भयो .

सुरा गऊअन के गुबर मंगाए ,
डिगधर अंगन लिपाये ,
गज मुतियन के चौक पुराए
कंचन कलश लिसाए
पुरी में आनंद भयो ....

मात कौशल्या पूछन  लागीं
कहो बन की कछु बात
कितने दिन में रावन मारे
दियो विभीषण राज
पुरी में आनंद भयो ...

आठ घाट के रावन मारे
मेघनाद बलवान
कुम्भकरण से जोधा मारे ...
राज्य विभीषण पाए
पुरी में आनंद भयो ....

मात कौशल्या करें आरती
सखियाँ मंगल गाएँ
घर-घर बाजे अनंद बधैया
तुलसीदास गुण गायें ....
पुरी में अनंद भयो ....



Tuesday, March 20, 2012

आज फिर जीने की तमन्ना है ....!!

आज आपको अपना गाया  हुआ एक गीत सुनाने का मन है ..!गीत ज़रूर सुनिए ...पर उससे पहले कुछ संगीत शास्र भी ....

रस-परिपाक में राग और वाणी के अतिरिक्त लय भी एक प्रमुख तत्व  है ।भाव के अनुकूल शब्दों की प्रकृति जान कर उचित लय का प्रयोग संगीत के सौंदर्य वर्द्धन   में होता है ।ठीक उसी प्रकार ,जैसे करुना की अभिव्यंजना के समय मनुष्य की क्रीडाओं में ठहराव आ जाता है और चपलता नष्ट हो जाती है ,परन्तु उत्साह और क्रोध के अवसर पर उसकी क्रियाओं में तीव्रता आ जाती है ।इसीलिए करुण रस के परिपाक के लिए विलंबित लय हास्य और श्रृंगार के लिए मध्य लय ,तथा वीर,रौद्र,अद्भुत एवं विभत्स रस  के  लिए द्रुत लय का प्रयोग प्रभावशाली सिद्ध होता है ।गीत की रसमयता ,छंद और ताल का सामंजस्य ,गायक-वादकों की परस्पर अनुकूलता तथा स्वर और लय की रसानुवर्तिता इत्यादि विशेषताएं मिलकर संगीत में सौंदर्य बोध  का कारण बनती हैं ।
  




Thursday, March 15, 2012

संगीत में काकु.....



भिन्न कंठ ध्वनिर्धीरै: काकुरित्यभिदीयते |

ब्रह्मकमल ..

अर्थात-कंठ की भिन्नता से ध्वनी में जो भिन्नता पैदा होती है ,उसे 'काकु' कहते हैं ।ध्वनी या आवाज़ में मनोभावों को व्यक्त करने की अद्भुत शक्ति होती है ।कंठ में जो ध्वनि- तंत्रियाँ हैं उसके स्पंदन से ध्वनी निकलती है ।
ध्वनि में मनोभावों को व्यक्त करने की विचित्र शक्ति है |शोक,भय,प्रसन्नता,प्रेम आदि भावों को व्यक्त करने के लिए जब ध्वनि या आवाज़ में भिन्नता आती है ,तब उसे काकु कहते हैं |'काकु 'का प्रयोग मनुष्य तो करते ही हैं ,पशुओं में भी 'काकु ' का प्रयोग भली-भाँती पाया जाता है |उदाहरणार्थ ,एक कुत्ता जब किसी चोर के ऊपर भौंकता है ,उसकी ध्वनि में भयंकरता होती है ;वही कुत्ता जब अपने मालिक के साथ घूमने की व्यग्रता प्रकट करता है तो उसकी ध्वनि या काकु  बदल जाती है |
     पशुओं की अपेक्षा मानव जाती में काकु  का प्रयोग विशेष रूप से पाया जाता है |एक शब्द है-जाओ |इस शब्द को काकु  के विभिन्न प्रयोगों  से देखिये ....मालिक नौकर से कहता है जाओ ...आज्ञा भाव,
माँ अपने बच्चे को मना  कर स्कूल भेजती है ...थोड़ा लाड़,प्यार या मानाने का भाव |इस प्रकार कई जगह काकु  का प्रयोग होता है |इसी प्रकार गायन में भी काकु  का प्रयोग होता है |काकु  के सुघड़ प्रयोग से भाव प्रबल गायकी होती है |संगीत को करत की विद्या कहा जाता है |अर्थात कुछ बातें एक गुरु ही अपने शिष्यों को सिखा पाते  हैं |...!स्वरों को किस प्रकार लेना कि भाव स्पष्ट हों ...ये संगीत में बहुत ज़रूरी है |कभी कभी एक ही गीत दो भिन्न लोगों से सुनने पर प्रभाव अलग होता है ।यही काकु का प्रभाव है ।
नाटक में भी काकू का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है ...!तो इस प्रकार काकु  के अंदर एक विचित्र शक्ति है ,जिसके द्वारा भावों की अभिव्यंजना में स्निग्धता,माधुर्य तथा  रस की सृष्टि होती है |संगीत के लिए तो काकु  का प्रयोग बहुत ही महत्व रखता है |

Friday, March 9, 2012

भारतीय संगीत की उत्पत्ति ....!!


''संगीत- दर्पण'' के लेखक दामोदर पंडित (सन १६२५ ई .)के मतानुसार ,संगीत की उत्पत्ति वेदों के निर्माता ,ब्रह्मा  द्वारा  ही हुई ।ब्रह्मा ने जिस संगीत को शोधकर निकाला  ,भारत मुनि ने महादेव के सामने जिसका प्रयोग किया ,तथा जो मुक्तिदायक है वो मार्गी संगीत कहलाता है|
इसका प्रयोग ब्रह्मा के बाद भारत ने किया ।वह अत्यंत प्राचीन तथा कठोर सांस्कृतिक व धार्मिक नियमों से जकड़ा हुआ था ,अतः आगे इसका प्रचार ही समाप्त हो गया ।
एक विवेचन में सात  स्वरों की उत्पत्ति पशु-पक्षियों  द्वारा इस प्रकार बताई गयी है :

मोर से षडज (सा)
चातक से रिशब (रे)
बकरे से गंधार  (ग )
कौआ से मध्यम  (म)
कोयल से पंचम  (प)
मेंडक से धैवत  (ध)
हाथी से निषाद  (नि)
स्वर की उत्पत्ति हुई ।

एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो सातों स्वरों की नाद निकाल सकता है ...!



Sunday, March 4, 2012

हार्मनी ....और....मेलोडी

हार्मनी :  दो या दो से अधिक स्वरों को एक साथ बजने से उत्पन्न मधुर भाव को हार्मनी या स्वर संवाद कहते हैं ।उदाहरण के लिए सा,ग,प या ... सां स्वरों को एक साथ बजने से हार्मनी की रचना होगी।पाश्चात्य संगीत हार्मनी पर ही आधारित है ।


मेलोडी :  स्वरों के क्रमिक उच्चारण या वादन को मेलोडी कहा गया है ।जैसे सा,ग,प आदि एक दुसरे के बाद गाये  बजाये जाएँ तो मेलोडी किन्तु यदि इन्हें एक साथ बजाय जाये तो सम्मिलित स्वर हार्मनी कहलायेंगे ।हमारी हिन्दुस्तानी संगीत मेलोडी प्रधान है क्योंकि क्रमिक स्वर उच्चारण इसकी विशेषता है ।
  • मेलोडी व्यक्ति की आतंरिक भावनाओं को और हार्मनी बाह्य वातावरण को व्यक्त करने में सफल होती है । 
  • व्यक्तिगत भावों के लिए मेलोडी और सामूहिक भाव प्रदर्शन के लिए हार्मनी उपयुक्त है ।जैसे -एक व्यक्ति जब अपनी माँ से विदा मांग रहा है तो उसके मनोभावों को व्यक्त करने के लिए मेलोडी उपयुक्त होगी ।किन्तु एक सुंदर दृश्य जैसे -नदी का किनारा ,पक्षियों का कलरव ,डूबता सूर्य,दूर से आती हुई संगीत-ध्वनी आदि को व्यक्त करने में हार्मनी उपयुक्त होगी ।

Tuesday, January 31, 2012

दमादम मस्त कलंदर .....

मैं सोचती हूँ ...शास्त्रीय संगीत मेरी आत्मा है ...!लेकिन मुझ जैसे और भी लोग हैं जिनकी आत्मा है शास्त्रीय संगीत ...!!शायद मुझसे भी ज्यादा लगाव है संगीत से उनका ...!!
गाना बजाना और सुनना ...
किन्तु  न गायक न वादक न श्रोता ...यहाँ सिर्फ संगीत है .....एक रूप ...उसी में सब समां जाना चाहते हैं ...संगीत सब को एक लहर में बहा ले जाता है ....इस अनुभूति के लिए .. ...इस शाम के लिए मैं अपने आप को धन्य मानती हूँ .....




सिंथ  पर  हैं  मुकेश कानन जी 
तबले पर हैं हमित वालिया जी . 

दमादम मस्त कलंदर .....सुनिए ....

Monday, January 23, 2012

सहृदय स्वरोज सुर मंदिर पर ...

सहृदय स्वरोज  सुर मंदिर पर ...

ख़ामोशी की आवाज़....
अँधेरे में उठाते रोशन लफ्ज़ ...



Monday, January 16, 2012

ताल और रस ....!!

किसी भी कला के लिए ये ज़रूरी है कि उससे मानव ह्रदय में स्थित स्थायी भाव जागें और उन भावों से तत्सम्बन्धी रस की  उत्पत्ति होती हो ;तभी मनुष्य आनंद की  अनुभूति कर सकता है |इसी को सौंदर्य बोध कहते हैं |
साहित्य में नौ रसों का उल्लेख किया गया है :
१-श्रृंगार  रस
२- करुण रस
३-वीर रस
४-भयानक रस
५-हास्य रस
६-रौद्र  रस
७-वीभत्स रस
८-अद्भुत रस
९-शांत रस


संगीत में श्रृंगार,वीर,करुण और शांत इन चारों रसों में अन्य सभी रसों का समावेश मानते हुए ताल और लय को भी रसों में सम्बंधित माना  गया है |
शब्द,स्वर,लय  और ताल मिल कर संगीत में रस की  उत्पत्ति करते हैं |साहित्य में छंद की  विविधता और संगीत में ताल एवं लय के सामंजस्य द्वारा विभिन्न रसों की सृष्टि की  जाती है |
   ताल विहीन संगीत नासिका विहीन मुख की  भांति बताया गया है |ताल से अनुशासित होकर ही संगीत विभिन्न भावों और रसों को उत्पन्न कर पता है |ताल की गतियाँ स्वरों की सहायता के बिना भी रस -निष्पत्ति में सक्षम होती हैं |


मध्य लय -हास्य एवं श्रृंगार रसों की पोषक है |
विलम्बित लय -वीभत्स और भयानक रसों की पोषक है |
द्रुतलय -वीर,रौद्र एवं  अद्भुत रसों की पोषक है |